खेती आंदोलन : संघर्ष का सामाजिक नजरिया

खेती आंदोलन : संघर्ष का सामाजिक परिप्रेक्ष्य - हरिंदर हैप्पी

 ऐसे समय में जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से लड़ रही थी, भारत सरकार ने "आपदा में अवसर" तलाशते हुए कृषि के लिए सबसे उपजाऊ भूमि को कॉर्पोरेट हाथों में देने के लिए तीन कानून पारित किए। भाजपा सरकार द्वारा यह साबित करने की कोशिश की गई कि समूचे कृषि संकट को केवल इन कानूनों द्वारा ही हल किया जा सकता है, लेकिन इसके विपरीत, किसान और श्रमिक अच्छी तरह जानते हैं कि ये कानून भारतीय कृषि में बहुआयामी संकट को खत्म करने के बजाय और भी गहरा करेंगे। हरियाणा के पिपली में पुलिस लाठीचार्ज और 25 सितंबर को भारत बंद के बाद यह एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन बन गया। 07 नवंबर, 2020 को गुरुद्वारा श्री रकाबगंज साहिब, दिल्ली में देश के जुझारू किसान संगठन, तब से समन्वित तरीके से देश भर में एक लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं। आंदोलन को दस महीने बीत चुके हैं। 27 सितंबर का भारत बंद पूरी तरह से सफल रहा  ।  भाजपा, केंद्र सरकार और गोदी मीडिया ने आंदोलन को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन इसके बावजूद ऐसा क्या है जो इस आंदोलन को ऐतिहासिक और लोकप्रिय बनाता है?

 इस आंदोलन की कुछ सामाजिक जीतें हैं जो पूरे संघर्ष को जोरों पर रख रही हैं।  किसानों की सबसे बड़ी जीत यह है कि किसान और कृषि को एक बार फिर राष्ट्रीय महत्व का विषय माना गया है।  अतीत में, जब भी किसान दिल्ली या राज्य की राजधानीओं में धरना प्रदर्शन करते थे, तो उन्हें अखबार के एक छोटे से कोने में जगह मिल जाती थी। या जब किसानों ने आत्महत्या की हो तब।  लेकिन इस आंदोलन के कारण न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कृषि पर बहस हुई है।  मुख्यधारा से भटक चुके इस अहम मुद्दे को अब सही जगह मिल गई है.

 सरकार इसे राजनीतिक आंदोलन होने का आरोप लगा रही है।  किसानों ने साबित कर दिया है कि उनका संघर्ष नीतिगत स्तर पर राजनीतिक ही है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह चुनावी राजनीति के लिए है।  सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति में न जाकर किसानों ने यह साबित कर दिया है कि संवैधानिक व्यवस्था में भी 'श्रम विभाजन' बहुत महत्वपूर्ण है।  किसान कहीं नहीं कहते हैं कि वे संविधान में विश्वास नहीं करते हैं, बल्कि किसान तो मानते हैं कि ये कानून असंवैधानिक हैं।  ये कानून केंद्र सरकार ने संसद में बनाए थे और केंद्र सरकार को भी इन्हें उसी तरह से निरस्त करना चाहिए।  किसानों का संघर्ष राजनीतिक है लेकिन किसानों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आंदोलन संघर्ष के रूप में राजनीतिक है और उन्होंने अपने राजनीतिक दुश्मनों की पहचान कर ली है।

 इस किसान आंदोलन ने किसानों और मजदूरों के समर्थकों और विरोधियों के चेहरे बेनकाब कर दिए हैं।  कई बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री, जो खुद को किसान समर्थक कहते रहे, लेकिन इन नवउदारवादी नीतियों की वकालत करके इस आंदोलन में अपना किसान विरोधी चेहरा दिखा दिया।  इसके विपरीत कई बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री जो मुख्यधारा में नहीं थे, लेकिन अब खुलकर किसानों के समर्थन में आ गए हैं।  कुछ पुराने नौकरशाहों ने आंदोलन को सही ठहराया और किसानों का समर्थन किया।

 देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि देश के शीर्ष कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ इतने बड़े पैमाने पर जन आंदोलन हुआ है।  पंजाब में किसानों द्वारा अंबानी और अडानी के पेट्रोल पंप, साइलो, शॉपिंग मॉल और अन्य सेवाओं और उत्पादों का बहिष्कार करना इस बात का प्रमाण है कि किसान अब सरकार और कॉर्पोरेट लूट के बीच मिलीभगत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। यह किसानों की जीत थी कि अडानी को पंजाब में अपने कुछ ठिकानों को बंद करना पड़ा और इन कॉरपोरेट घरानों को उनका विरोध न करने के लिए प्रमुख समाचार पत्रों सहित सभी मीडिया में विज्ञापन देना पड़ा।

 इस आंदोलन के द्वारा किसानों ने अपनी एजेंसी को स्थापित कर इसका सकारात्मक उपयोग किया है।  हर राजनीतिक दल या नेता को आंदोलन से दूर रखा गया।  इतने बड़े प्रबंधन की जिम्मेदारी किसान संगठनों ने खुद ली है।  किसानों के लिए अपना आईटी सेल स्थापित करना और ऑनलाइन लड़ाई लड़ना एक बड़ा प्रयास था।  हालांकि, यह सब व्यवस्था में अविश्वास के कारण हुआ है कि किसानों का किसी भी राजनीतिक दल और देश के मीडिया से विश्वास उठ गया है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है।  सरकार और भारतीय जनता पार्टी द्वारा बार-बार यह प्रचारित किया गया कि दिल्ली के मोर्चों पर पहुंचे किसान आतंकवादी, खालिस्तानी, माओवादी थे, लेकिन किसानों ने इन सभी सवालों का जवाब बिना किसी हिंसक कार्रवाई के शांतिपूर्वक दिया।  ये सभी सवाल प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से किसानों पर हमला कर रहे थे, उदाहरण के लिए : हजारों पूर्व सैनिक भी इस आंदोलन में शामिल हैं. आज भी हजारों किसानों के वारिस भारतीय सेना में शामिल होते हैं और आतंकवाद के खिलाफ लड़ते हैं।  उन्हें आतंकवादी कहना शर्म की बात है।  लॉकडाउन के दौरान हर क्षेत्र में देश की जीडीपी में गिरावट आ रही थी तो कृषि क्षेत्र ने ही सकारात्मक वृद्धि दिखाई।  इसके अलावा, अगर हम कृषि संकट को समझना चाहते हैं, तो हमें अर्थशास्त्री या समाजशास्त्री होने की जरूरत नहीं है, हमें सिर्फ इंसान होने की जरूरत है क्योंकि भोजन के अलावा शायद ही कोई गतिविधि होगी जो मानव सभ्यता और किसानों को जोड़ती हो। मज़दूर व किसान इस सभ्यता के सबसे बड़े पात्र है जो फसलों को अपने बच्चों की तरह पालते हैं।

पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को घर के दायरे में रखना सबसे अच्छा माना जाता है, लेकिन इस आंदोलन में एक मजबूत ताकत के रूप में उभरते हुए महिला किसानों द्वारा "इंकलाब में जगह" स्थापित की है।  आंदोलन में मजदूरों के समर्थन और भागीदारी को नकारा नहीं जा सकता।  हालांकि, मजदूरों की भागीदारी इतनी अधिक नहीं रही है क्योंकि उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति इसके योग्य नहीं है, लेकिन मजदूरों ने किसानों का पुरजोर समर्थन किया है, जो सराहनीय है।

  इस आंदोलन में किसानों ने सभी विचारधाराओं को किनारे कर दिया था और केवल "तीन कृषि कानूनों और एमएसपी" के बारे में बात करने का आह्वान किया था, जिसमें संयुक्त किसान मोर्चा सफल रहा है।  इस आंदोलन की ताकत यह है कि इसमें सैकड़ों किसान-मजदूर संगठन शामिल हैं, लेकिन सभी की एक ही मांग है - "तीनों कानूनों का रदद् होना और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनना"।

 किसान मोर्चा ने पुराने किसान आंदोलनों को आज की युवा पीढ़ी के सामने रखा।  शहीद भगत सिंह, डॉ. भीमराव अंबेडकर, बीबी गुलाब कौर, सावित्री बाई फुले और उन सभी क्षेत्रीय हस्तियों और मुख्यधारा के आदर्शों को नए युग से सामने लाया गया।  उनकी याद में किसान मोर्चा द्वारा चाचा अजीत सिंह, करतार सिंह सराभा, धन्ना भगत, ग़दर आंदोलन के नेता, नंजूदासस्वामी, विजय सिंह पथिक आदि का आयोजन किया।

 इस आंदोलन में युवाओं ने पूरी ताकत दिखाई है।  लंगर, चिकित्सा सेवा, सोशल मीडिया, साफ-सफाई, मंच प्रबंधन आदि के लिए युवाओं ने अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए कड़ी मेहनत और लगन से काम किया है.  युवाओं ने मीडिया और सरकार के दुष्प्रचार के खिलाफ भी कार्रवाई की।  इसके लिए ट्रॉली टाइम्स, कार्ति धरती, ट्रैक्टर टू ट्विटर, किसान एकता मोर्चा, वेहड़ा, नानक हट, अंबेडकर लाइब्रेरी, सांझी सत्थ, मां धरती के वारिस जैसे नए रचनात्मक कदम लिए गए वहीं अमन बाली, संदीप सिंह, असिस कौर, रणदीप संगतपुरा, अमर पंढेर जैसे स्वतंत्र पत्रकार के रूप में उभरे।

 इस आंदोलन में शहीद हुए किसानों और मजदूरों के बलिदान को याद करते हुए अनुरूप संधू के प्रयासों से कुछ युवाओं ने ह्यूमन कॉस्ट ऑफ प्रोटेस्ट नाम से एक ब्लॉग बनाया है, जिसमें इस आंदोलन के शहीदों के बारे में सारी जानकारी है।  इस ब्लॉग का उद्देश्य उनके बलिदान को याद करना है।  जैसा कि केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया है कि उसके पास शहीद किसानों का कोई विवरण नहीं है, उनके परिवारों को सामाजिक और वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए इस ब्लॉग के माध्यम से जानकारी सुरक्षित की जा रही है।

 किसान इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि इस कानून के रद्द होने मात्र से किसानों की सभी समस्याओं का समाधान नहीं होगा, लेकिन फिर भी जिस उत्साह और साहस के साथ यह लड़ाई लड़ी जा रही है, किसानों की यह जीत भी तय है.  किसान समझते हैं कि यह आंदोलन किसानों के व्यापक विरोध की आवाज बनेगा और किसानों की प्रगति में मील का पत्थर साबित होगा।  इसके बाद किसानों के लिए उनके अधिकार पाने का रास्ता खुल जाएगा, लेकिन अगर यह आंदोलन विफल रहता है तो किसानों का शोषण बढ़ेगा और इतना बड़ा आंदोलन कभी नहीं उठेगा.

 भाजपा ने हमेशा धर्म के बदले हुए अर्थ के साथ सांप्रदायिकता फैलाई है लेकिन किसान धर्म को "धारण किये जाने" के रूप में देखते हैं। दिल्ली की सीमाओं पर किसान गुरुपर्व और बुद्ध पूर्णिमा भी मनाते हैं। वे यज्ञ भी करते है व इफ्तार पार्टी।  मोर्चा के दिन जी शुरुआत गुरबानी के साथ-साथ हनुमान चालीसा के साथ होती है।  पश्चिमी उत्तर प्रदेश का ऐतिहासिक नारा 'अल्लाह हू अकबर - हर हर महादेव' भी मुजफ्फरनगर महापंचायत में लगा जो एकता का प्रतीक है।  किसान वर्ग की यह राजनीति राजनीतिक दलों, खासकर भारतीय जनता पार्टी के लिए खतरा है, क्योंकि धर्म और राजनीति के सही मायने किसान आंदोलन ही याद दिला रहा है।

जहां किसानों ने कृषि कानूनों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ाई लड़ी है, वहीं सामाजिक न्याय के मुद्दों पर भी उन्होंने एकता बनाए रखी है।  संयुक्त किसान मोर्चा रविदास जयंती, अम्बेडकर जयंती, मजदूर दिवस, महिला दिवस और मुख्य रूप से किसान-मजदूर एकता दिवस के माध्यम से एकता का संदेश देता रहा है।  जहां भी खेत मजदूर संगठनों ने धरना दिया- किसान संगठनों ने उनका पुरजोर समर्थन किया है. हाल ही में, पटियाला में मजदूरों की एक हड़ताल के दौरान किसान संगठनों के सदस्यों ने लंगर लगाए। मजदूरों द्वारा प्रयोग में किये गए बर्तन भी किसान संगठनों के सदस्यों ने धोये जो जातिय व वर्गीय एकता को दर्शाता है।

 बीजेपी पंजाब और हरियाणा के लोगों की एकता से पूरी तरह डरी हुई है और इस एकता को बांटने की कोशिश करती रहती है.  राजस्थान के मीणा और गुर्जर समुदाय के लोग एक साथ आए हैं।  मुजफ्फरनगर में पुरानी खाई को पाटने के लिए मुसलमान और जाट एकजुट हो गए हैं.

 कलाकारों की भागीदारी से इस आंदोलन को और बल मिला है।  कलाकार अधिक प्रतीकात्मक कदम उठाकर राज्य के साथ एक ठोस और सीधी लड़ाई ले रहे हैं।  आंदोलन से पहले के गीत सामाजिक अन्याय, यौन हिंसा और सामाजिक अस्थिरता के इर्द-गिर्द घूमते थे।  इस आंदोलन के कारण उन्हें एमएसपी, विदेशी आयात, डब्ल्यूटीओ आदि के बारे में भी समझ आ गई है।

 किसानों का भाजपा के खिलाफ बंगाल चुनाव में जाना एक महत्वपूर्ण कदम था।  किसानों का मानना ​​था कि बीजेपी सिर्फ वोटों की भाषा समझती है.  अब अगर किसानों की मांगें नहीं मानी गईं तो उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के किसान भाजपा का और भी कड़ा विरोध करेंगे।

 सरकार द्वारा कृषि कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने के अलावा अनौपचारिक रूप से यह भी पेशकश की गई कि वह 3 साल के लिए निलंबित करने के लिए तैयार है।  3 साल के लिए निलंबित होने का मतलब है कि यह कानून खत्म हो गए है क्योंकि 3 साल में लोकसभा चुनाव हैं और सरकार चुनाव के समय इन कानूनों को लाने की गलती नहीं करेगी। इसका मतलब है कि सरकार ने इन कानूनों को छोड़ दिया है और उन्हें वापस ले रही है।  बस हार को दिखाना नहीं चाहती और इसलिए सरकार सीधे कहती है कि अगर "निरस्त/रिपील" शब्द के अलावा कोई प्रस्ताव है तो वह बातचीत के लिए तैयार है लेकिन किसानों का यह कहना है कि वे अपनी मूल मांगों पर कायम हैं।

 कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह आंदोलन किसी पेड़ पर लटका हुआ फल नहीं है, जो कच्चे से पक्के होने की प्रक्रिया में है और समय के साथ पक कर एक दिन नीचे गिर जाएगा।  बल्कि यह आंदोलन एक मटकी में हल्की आंच पर गर्म हो रहे दूध की तरह है, इसे जितनी देर तक गर्म किया जाता है, इसकी ताकत और स्वाद मजबूत होते जाएंगे।

 हरिंदर हैप्पी, शोधकर्ता
 8470870970 (harenderhappy@yahoo.com)

यह लेख मूल रूप से 23 अक्टूबर 2021 के पंजाबी ट्रिब्यून अखबार में पंजाबी भाषा मे प्रकाशित हुआ।
फ़ोटो : अम्बाला रेलवे लाइन, 18 अक्टूबर 2021

Comments

Popular posts from this blog

भारत एक "लीक प्रधान" देश है।

Singhu Incident : What and What not.

Major Khan's demise : A Major Loss To Us