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भारत एक "लीक प्रधान" देश है।

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भारत एक लीक प्रधान देश है। यहां सब कुछ लीक हो सकता है। लीक होना यहां की आत्मा में है। जैसे एक डैम से लेकर छोटी टंकी, सब लीक होता है। हमारे पेपरों से लेकर हर बात लीक होती है। देश के ईमानदार पत्रकार प्रधानमंत्री से इंटरव्यू के लिए कड़े सवाल तैयार करते हैं, पर वे भी लीक होकर पहले ही प्रधानमंत्री के पास पहुंच जाते हैं। घरों में सिलेंडर लीक, हॉस्टल में कूलर लीक, उच्च स्तरीय नेताओं की निम्न स्तरीय वीडियो लीक, और छात्रवृत्ति के पैसे से हो रहे प्रतिभोज में डिस्पोजेबल लीक। बारिश आते ही गरीब के घर की छत लीक होती है, गर्मी आते ही अमीर की एसी लीक होने लगती है। बैंगलोर और गुड़गांव वालों को भी पता है कि उधर क्या लीक हो रहा है। किसको क्या पता था कि जब देश की औरतें जीन्स पहनने की आज़ादी पाएंगी तो यह हुकूमत इस लायक भी रहने देगी कि उनकी जेब भी ईएमआई से लीक न हो जाएगी। दरबारियों की मानें तो इस देश की सभ्यता भी लीक होती रही है। जहां पश्चिम ने बीस-तीस साल पहले इंटरनेट बनाया, वो आईडिया भी हमारे महाभारत से लीक हुआ है।  दरअसल, जब कभी भी पश्चिम में कोई अविष्कार होता है, हमारे दरबारी इसी बात पर जोर

Environment Question and Role of Farm Unions

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  - Prabhjot Kaur*; Harinder Happy** {This article was originally published in Panjabi Tribune on 1st October 2022 in Panjabi language. The link of the same is here - https://www.punjabitribuneonline.com/news/comment/environmental-issues-and-farmers39-organizations-182596 } There is a dire need to fix responsibilities for the management of the environment of Punjab, which is deteriorating day by day. Punjab is an agricultural state. A large part of the population is associated with agriculture, and farmers' organizations are strong in the state. The role of these organizations is important in protecting the environment of Punjab. The straw burning issue cannot be understood and solved in isolation. It is the direct result or product of the green revolution model. Although the green revolution has affected the other sectors of Punjab's environment, the national media only talks about straw burning because the burning of straw coincides with the Diwali festival, and farmers are o

ਖੇਤੀ ਅੰਦੋਲਨ : ਸੰਘਰਸ਼ ਦਾ ਸਮਾਜਿਕ ਨਜਰੀਆ

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ਖੇਤੀ ਅੰਦੋਲਨ : ਸੰਘਰਸ਼ ਦਾ ਸਮਾਜਿਕ ਨਜਰੀਆ - ਹਰਿੰਦਰ ਹੈਪੀ ਜਦ ਪੁਰੀ ਦੁਨੀਆਂ ਕੋਰੋਨਾ ਮਹਾਂਮਾਰੀ ਦੇ ਖਿਲਾਫ ਲੜਾਈ ਲੜ ਰਹੀ ਸੀ, ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ "ਆਪਦਾ 'ਚ ਅਵਸਰ' ਲੱਭਦੀਆਂ ਖੇਤੀ ਲਈ ਸਭਤੋਂ ਉਪਜਾਊ ਜਮੀਨਾਂ ਨੂੰ ਕਾਰਪੋਰੇਟ ਹੱਥਾਂ ਵਿੱਚ ਦੇਣ ਲਈ ਤਿੰਨ ਕਾਨੂੰਨ ਪਾਸ ਕੀਤੇ। ਇਹ ਤਿੰਨੇ ਕਾਨੂੰਨ ਇਸ ਢੰਗ ਨਾਲ ਪੇਸ਼ ਕੀਤੇ ਗਏ ਜਿਵੇਂ ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਦੇ ਸਮੁੱਚੇ ਸੰਕਟ ਨੂੰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਹੀ ਹੱਲ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ. ਪਰ ਇਸਦੇ ਉਲਟ, ਕਿਸਾਨ-ਮਜਦੂਰ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਮਝ ਗਏ ਕਿ ਇਹ ਕਾਨੂੰਨ ਭਾਰਤੀ ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਦੇ ਬਹੁ-ਪੱਧਰੀ ਸੰਕਟ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨ ਦੀ ਬਜਾਏ ਹੋਰ ਡੂੰਘਾ ਕਰਨਗੇ. ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀਆਂ ਅਤੇ ਕਿਸਾਨ ਜਥੇਬੰਦੀਆਂ ਨੇ ਬਹੁਤ ਚਿਰ ਪਹਿਲਾਂ ਚੇਤਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿਤੀ ਸੀ।  ਹਰਿਆਣਾ ਦੇ ਪੀਪਲੀ ਵਿਖੇ ਪੁਲਿਸ ਦੀ ਕਾਰਵਾਈ ਅਤੇ 25 ਸਤੰਬਰ 2020 ਦੇ ਭਾਰਤ ਬੰਦ ਦੇ ਬਾਅਦ ਇਹ ਦੇਸ਼ ਵਿਆਪੀ ਅੰਦੋਲਨ ਬਣ ਗਿਆ। 7 ਨਵੰਬਰ 2020 ਨੂੰ, ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਸ੍ਰੀ ਰਕਾਬਗੰਜ ਸਾਹਿਬ ਦਿੱਲੀ ਵਿਖੇ, ਦੇਸ਼ ਦੀਆਂ ਜੁਝਾਰੂ ਕਿਸਾਨ ਜਥੇਬੰਦੀਆਂ ਨੇ "ਸੰਯੁਕਤ ਕਿਸਾਨ ਮੋਰਚਾ" ਬਣਾਇਆ। ਉਦੋਂ ਤੋਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੇ ਦੇਸ਼ ਭਰ ਵਿੱਚ ਤਾਲਮੇਲ ਰੱਖਦਿਆਂ ਇੱਕ ਲੰਮੀ ਲੜਾਈ ਛੇੜੀ ਹੋਈ ਹੈ.  26 ਨਵੰਬਰ 2020 ਨੂੰ ਹੀ "ਦਿੱਲੀ ਚਲੋ" ਕਾਲ ਵਿੱਚ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਇਹ ਲੜਾਈ ਲੰਬੇ ਸਮੇਂ ਤੱਕ ਚਲੇਗਾ। ਦਿੱਲੀ ਦੀਆਂ ਬਰੂਹ

खेती आंदोलन : संघर्ष का सामाजिक नजरिया

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खेती आंदोलन : संघर्ष का सामाजिक परिप्रेक्ष्य - हरिंदर हैप्पी  ऐसे समय में जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से लड़ रही थी, भारत सरकार ने "आपदा में अवसर" तलाशते हुए कृषि के लिए सबसे उपजाऊ भूमि को कॉर्पोरेट हाथों में देने के लिए तीन कानून पारित किए। भाजपा सरकार द्वारा यह साबित करने की कोशिश की गई कि समूचे कृषि संकट को केवल इन कानूनों द्वारा ही हल किया जा सकता है, लेकिन इसके विपरीत, किसान और श्रमिक अच्छी तरह जानते हैं कि ये कानून भारतीय कृषि में बहुआयामी संकट को खत्म करने के बजाय और भी गहरा करेंगे। हरियाणा के पिपली में पुलिस लाठीचार्ज और 25 सितंबर को भारत बंद के बाद यह एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन बन गया। 07 नवंबर, 2020 को गुरुद्वारा श्री रकाबगंज साहिब, दिल्ली में देश के जुझारू किसान संगठन, तब से समन्वित तरीके से देश भर में एक लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं। आंदोलन को दस महीने बीत चुके हैं। 27 सितंबर का भारत बंद पूरी तरह से सफल रहा  ।  भाजपा, केंद्र सरकार और गोदी मीडिया ने आंदोलन को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन इसके बावजूद ऐसा क्या है जो इस आंदोलन को ऐतिहासिक और लोकप्रिय बनाता है?  इ

Farmers Protest : Social Perspective of Struggle

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Agrarian Movement: Social Perspectives of Struggle - Harinder Happy At a time when the whole world was fighting with the corona pandemic, the Indian government, finding "opportunities in a disaster/ Aapda me avsar", passed three laws to hand over the most fertile land for agriculture to corporate hands.  Attempts were made by the BJP government to prove that the entire agrarian crisis can be solved only by these laws, but on the contrary, farmers and workers are well aware that these laws instead of ending the multidimensional crisis in Indian agriculture, will deepen it.  It became a nationwide movement after the police lathi charge in Pipli, Haryana and the Bharat Bandh on 25 September 2020.  The agitating farmers' organizations of the country have been fighting a long battle in a coordinated manner across the country since 7th November 2020 when Samyukta Kisan Morcha - SKM was formed in Gurdwara Sri Rakabganj Sahib, Delhi. Ten months have passed since the movement has

Singhu Incident : What and What not.

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What happened at Singhu is neither a caste issue nor a farmers' cause. It is completely a religious and criminal case. Sadly, this issue has been propagated as Kisan vs. Mazdoor, but in the real sense, this is beyond the lines. And even for that matter, both accused and victim are Dalits. (Photo : Accused Nihang Narayan Singh at his home where a portrait of Baba Saheb Ambedkar can be seen in background.) Undoubtedly the caste lines are solid in Panjab. But we should make a difference between Panjab and Sikhi. Sikhi doesn't advocate caste and strictly prohibits casteism in any sphere, whereas Panjab has a robust caste system. Unlike Hinduism, the religious texts of Sikhism are anti-caste. Dalits have contributed to Sri Guru Granth Sahib. Dalits were leaders and warriors in many battles of Khalsa Panth. The problem lies mainly in rural society's social locations where the typical Hindutva patriarchal system affects the whole society. Panjab has more than 33% Dalit

Major Khan's demise : A Major Loss To Us

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किसान आंदोलन को खड़ा कर खुद शहीद हो गया मेजर खान झंडी मेजर खान। इसी नाम से मेरे फोन में सेव था उनका नम्बर। झंडी उनके गांव का नाम था जो पंजाब के पटियाला जिला में है। आपने मेजर खान को किसान नेता डॉ दर्शन पाल के साथ देखा होगा या सिंघु बॉर्डर पर कजारिया ऑफिस या कहीं ओर। परंतु हमेशा हमारे दिलों में रहते थे। किसान आंदोलन का सच्चा सेवादार जिसने अपने घर पर कह रखा था कि वो संघर्ष जीत कर ही घर आएगा। दिल्ली की सीमाओं पर अब लड़ाई तीन कानूनो के लिखित वापस लेने की ही बची है क्योंकि असल लड़ाई तो हमने मेजर खान जैसे फौजियों के दम से जीत ली है। मेजर खान उम्र 47 साल, एक गरीब मुस्लिम परिवार में जन्मा और खून पसीना एक कर फौज में भर्ती होता है। अपनी 24 साल की फौज की सेवा में हर साथी और सीनियर का चहेते मेजर खान की हंसमुख पहचान को कोई कैसे भूल सकेगा। आर्मी से रिटायर्ड होने के बाद वे क्रांतिकारी किसान यूनियन में ग्राम इकाई में काम करने लगे और थापर कॉलेज पटियाला में केअर टेकर का काम कर रहे थे कि तीन कृषि कानून आये और इसी ने मेजर खान को मुझसे और हज़ारो और लोगों से मिलवाया। अगस्त से